Podhe se kaho, mere janmdin par phool de - 1 in Hindi Moral Stories by Neela Prasad books and stories PDF | पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे - 1

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पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे - 1

पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे

  • नीला प्रसाद
  • (1)
  • वह सुबह से अपने कमरे में लैपटॉप पर व्यस्त है. मुझसे बात करने भी नहीं आ रही. कोई उदास करने वाली बेचैनी मुझे अपनी गिरफ्त में लेती जा रही है. हर मदर्स डे पर मुझसे आकर लिपट जाने और जेब-खर्च के नाममात्र पैसों से मुझे कुछ- न- कुछ खरीद कर देने वाली मेरी बेटी आज तो मुझे कोई भाव ही नहीं दे रही, मानो उसे याद तक न हो कि आज मदर्स डे है.

    “ओ बित्ती, ता तलती तू!.”, मैंने रोज की तरह दुलार में पुकार कर बात शुरू की. “कुत नईं..” वह भी इतराकर बोली. “आज मदर्स डे है”, मैंने याद दिलाया. “तो क्या.. तुम तो कहती हो, हमें मदर्स डे से क्या! यह तो विदेशियों का तरीका है कि साल भर मां को भुलाए रखो , फिर साल में एक दिन कुछ गिफ्ट- शिफ्ट दे दो..”. उसने मेरी नकल करते हुए कहा.

    ‘तो अबकी मुझे कुछ नहीं दोगी?’ मैंने उदास होने की ऐक्टिंग की.

    “नहीं” वह दृड़ स्वर में बोली. “मैं टीनएज हो चुकी, तब भी तुम मुझे मारती हो. मुझसे अच्छा व्यवहार नहीं करती. अपनी एक्सपेक्टेशन्स मुझपर लादे रहती हो- तो क्यों दूं कोई गिफ्ट?”

    “अब तुम मुझे प्यार नहीं करती?”.मैंने आशंकाओं से भरकर पूछा और अपनी आवाज में अनचाहे घुस आई कंपन को महसूसा.

    “नहीं, बिल्कुल नहीं. आज मैंने सोचा तो लगा कि मुझ पर चिल्लाने, मुझे मारने, मुझसे जबर्दस्ती करने, और बाई हुक ऑर क्रुक अपनी बात मनवा लेने के अलावा तुमने किया ही क्या है? तुम एक डिक्टेटर की तरह बर्ताव करती हो और घर में भी अफसर बनी जीती हो.”

    “तुम्हें लगता है मैंने तुम्हें कभी प्यार किया ही नहीं?” मैंने बेचैन होकर हल्के कांपते स्वर में पूछा.

    “हां मम्मा, मुझे तो ऐसा ही लगता है. अभी मैं बिजी हूं, मुझे डिस्टर्ब मत करो.” वह बिना किसी इमोशन के बोली और अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया.

    लकड़ी के उस बंद दरवाजे के पीछे, मेरे और उसके दिल के और भी बहुत से दरवाजे बंद थे. उन सब को एक- एक कर खोलना जरूरी था. खोलकर बेटी को जताना, दिखाना जरूरी था कि उन बंद दरवाजों के भीतर बेटी को लेकर मां हर दिन कितना तड़पती है. कितनी- कितनी बार टूटती, जुड़ती, फिर बिखरती जीती है. मां अपनी बेटी को दिल में छुपाकर सात परतों के भीतर रखना चाहती है कि वह हमेशा सुरक्षित रहे. पहले इस दुनिया में रहने के काबिल बन जाए फिर निकले बाहर ताकि इस निर्मम, जालिम दुनिया के थपेड़ों से चोट न खाए...नहीं, मां तो उसे सारी दुनिया को दिखाना चाहती है कि देखो, यह मेरी बेटी है- सुंदर, गुणी और संभावनाशील..मां तो अपनी बेटी को इस दुनिया के रीतिरिवाजों के अनुरूप भी बनाना चाहती है और इतनी अनूठी भी कि वह इस दुनिया को ही अपने अनुसार ढाल ले.

    पर दरवाजे बंद थे, तो बंद थे. कभी कोशिश करके एक दरवाजा खोला जाता तो उसके अंदर के किसी और बंद दरवाजे से सामना हो जाता और मां थक जाती- कोशिश करते, समझाते- बुझाते, डांटते... पर काश कि अंदर के सारे दरवाजे खुल पाते और मेरे अंदर की असली मां से, दिल के सभी खुले दरवाजों वाली असली बेटी का सामना हो पाता! फिर, मां की अपनी बिटिया से मुलाकात तो हो जाती! विद्रोह और शिकायतों की भरमार के भीतर से बाहर आ, हुलसकर मां से लिपट जाने, अपने अंदर बसे सपनों और आशंकाओं की झलक कभी- कभार दिखा जाने वाली बेटी के दिल से, मां के दिल की बात तो हो जाती!

    अभी तो हम रोज परतों में लिपटे मिलते हैं. परतें, परतों से टकराती हैं. अपेक्षाओं से अपेक्षाएं, सपनों से सपने, बोली की तीखी धार से जवाबी धार, हाथों की मार से प्रतिरोध में उठे हाथों की मार. हां, हम लगभग रोज ही तो लड़ते हैं- ज्यादातर बातों से, कभी- कभी हाथों से. पर तुरंत ही हममें फिर से दोस्ती हो जाती है. हमारी लडाई की उम्र इतनी छोटी होती है कि भावनाओं में उसकी मौत कुछ पलों में ही हो जाती है. कोई गीलापन हम दोनों को घेरता है और हम हंसकर लिपट जाते हैं - एक दूसरे को गुदगुदा कर हंसाते, दुलराते, मान जाते. आखिर घर में हम दो ही तो हैं - घर में रहते हुए भी अनुपस्थित उसके पिता के अलावा!

    मैं जाकर लेट गई. शायद दरवाजों को खोलने की कोशिश ही अधूरी और गलत तरीके की थी- तभी दरवाजे खोलते मैं थक जाती और थककर, हार मानकर चुप बैठ जाती रही थी. अब लगा कि उन दरवाजों को तुरंत खोलना जरूरी था, नहीं तो बहुत देर हो जा सकती थी. हो सकता था कि वह मेरी पहुंच से बहुत दूर चली जाए और मुझे पता ही नहीं चले. तेजी से अलग होती जा रही उसकी और मेरी दुनिया के बीच उग आए बहुत से जंगलों को काटना, पाटना और उस पर सड़क बना लेना निहायत जरूरी था.

    शायद मेरा और उसका रिश्ता, बीच में निरंतर बंद होते जाते दिल के दरवाजों की कथा था.

    यह बंद दरवाजों की कथा बनकर न रह जाए, इसीलिए जरूरी था कि दरवाजों के बंद होने को फिर से समझा जाए.

    मैंने हिम्मत करके अतीत के एक दरवाजे से भीतर झांका.

    अंदर साढ़े तीन साल की नर्सरी में पढ़ने वाली एक नन्हीं गुड़िया दिखी. वह बाहर से लौटी अपनी मां से कह रही थी- ‘मम्मा मेरे कमरे में मत जाना. वहां मैंने आसमान बिछा रखा है. तुम्हारे पांव बादलों में धंस सकते हैं. आसमान से तोड़कर जमीन पर बिछा रखे तारे टिमटिमा रहे हैं.’ मैं चौंकी . ‘अच्छा, झांककर देखो न!’. वह अपनी नन्हीं हथेली से मेरी कलाई पकड़ ले चली. उसके कमरे में रूई बिखरी पड़ी थी और कागज के सुनहरे सितारे यहां- वहां बिखरे थे.. ‘यहां सावधानी से बैठो. तुम आसमान की रानी परी और मैं राजकुमारी परी-‘ वह लाड़ में बोली. मैंने उसे गले लगा लिया. मेरी गोदी में लदे, मेरे कंधे पर सर टिकाए, उसने अपनी ड्रेस के अंदर छुपाया एक कार्ड निकाल कर मुझे थमा दिया और गाती हुई बोली ‘हैप्पी मदर्स डे. आई लव यू मम्मा.’ कार्ड क्लास टीचर की मदद से बनाया गया था. उस पर आसमान था, सितारे थे और उनके बीच एक लाल रंग का दिल. वह मेरी बेटी का दिल था कि उसकी मम्मा का? दिल लहक रहा था, पिघलकर टपक रहा था.. कार्ड में आड़ी- तिरछी रेखाओं में मेरी बेटी की कलाकारी, उसकी भावनाएं बिखरी हुई थीं, जो पीटने, पर बाद में पछताने, प्यार कर लेने वाली मां को समर्पित थीं. उस मां को- जो बेटी को दिल का टुकड़ा कहती, पर जमीन पर पटक- पटक कर मारती थी. मेरी आंखें तब भी भींग आई थीं, आज भी भींग आईं. दिल तब भी पिघला था, आज भी पिघला. मैं यही डिजर्व करती हूं- उसकी घृणा. मैंने खुद से कहा और घबराकर दरवाजा फिर से बंद कर दिया.

    जब वह छोटी थी, तब ऐसी नहीं थी. हमेशा तनी हुई और मां को चोट पहुंचाने को आतुर.. मैंने अपने सुन्न हो गए दिमाग में भरी कालिमा पर अतीत की यादों से कुछ रंग बिखेरने की कोशिश की.

    मेरे कमरे में रिमझिम बरसात हो रही है- वह मुझे बता जाती. गरमी से परेशान अपने कमरे में ए.सी चलाकर लेटी मैं क्षण भर को चौंक जाती, फिर बिटिया के स्वभाव से परिचित मुस्कुरा देती. “अच्छा, फिर तो तू भींग गई होगी?”. “हां, पूरी- की- पूरी भींग गई हूं.. और तो और, सूरज की गरमी लिए- लिए फिरने वाली मेरी मम्मा भी भींगकर ठंढी हो गई.” वह भोलेपन और मासूमियत से कहती. मैं दुबारा मुस्कुरा देती, पर मन- ही- मन अपनी गुड़िया के लिए चिंतित हो जाती..

    वह आसमान होती जा रही थी- तो मां उस तक पहुंचती कैसे! कभी- कभी तो ऐसा भी होता था कि उसकी कातर पुकार के स्वर सुन दौड़ी गई मां से वह कहती- “मम्मा, रोहित बहुत गंदा बच्चा है.अब मैं कभी उसके साथ नहीं खेलूंगी.” मां का मन आशंकाओं से भर उठता. ग्यारह बरस के रोहित ने क्या किया आखिर मेरी छह साला बेटी के साथ!. “शानू को उठाकर उछाल दिया और उसके लिए जो सूप मैंने बनाया था, पी गया. वह मेरे बच्चे को चोट पहुंचाता है, मेरा घर बरबाद कर रहा है. मैं भी उसके बच्चे को मारूंगी, उसका घर तोड़ दूंगी.” ओह! तो यह गुड्डे- गुड़िया का खेल था- मैं चैन की सांस लेती. पर उसके बहते आंसुओं का खयाल करके कहती. “ला तेरे बच्चे को मैं प्यार कर लूं. उसे चोट तो नहीं लगी ज्यादा?”. रोती बिट्टी कमरे के फर्श पर पड़े गुड्डे की ओर इशारा करके कहती- “देखो, कैसे रो रहा है बेचारा. सोचता होगा कि उसकी मां उसकी रक्षा भी नहीं कर सकती!”.

    फिर पांच की उमर में अपनी बेटी को मां बनने के अहसास से गुजरते देखा. मैं ऑफिस से आई तो वह कमरे में पड़ी रो-कराह रही थी- दिल को हिला देने वाला रोना. यत्न से पाली जा रही, दुनियावी दुखों से भरसक दूर रखी जाती हुई गुड़िया ने घोषणा की कि वह मां बनने जा रही है. सृजन का यह दर्द तो शायद उसके अहसासों में उसके जन्म के दिन ही लिख दिया गया था. वह उस दर्द से कराह रही थी और इंतजार कर रही थी कि जल्दी से मां बन जाए.. क्या उसे पता था कि वह एक गुनाह करने जा रही थी- सुख- दुख के चक्र में एक और प्राणी को बांधने जा रही थी. वह उस ममत्व में बंधने जा रही थी जो स्त्री को एक जगह खड़ा कर देता है और वह कहीं की नहीं रहती! उसके पांव धरती में धंस जाते हैं और वह एक जगह खड़ी- खड़ी ही पेड़ बनती, सूखती और झर कर मिट जाती है.. “ओ मम्मा, मैं इतनी देर से चिल्ला रही हूं, फिर भी तुम मेरे बच्चे को जनमाती क्यों नहीं! कैसी डॉक्टर हो तुम? क्या मेरे जन्म के समय तुम्हें भी ऐसे ही रोने- कराहने को छोड़, डॉक्टर खड़ी देखती रही थी? जल्दी से मेरा डॉक्टर सेट लाओ न..” उसकी डांट सुन मैं यथार्थ में लौटी थी. डॉक्टर सेट की मदद से सिजेरियन करके बिटिया को मां बनने की बधाई दी थी. उसके नवजात को साफ करके उसकी बगल में लिटा दिया तो अगले ही क्षण वह मारे खुशी के बिस्तर पर कूद- कूद कर तालियां पीटने लगी. मैंने याद दिलाया कि अभी पांच मिनट पहले तो मां बनी हो- ऐसे कूदो मत. वह तुरंत लेट गई और बेटी को दूध पिलाने लगी. फिर आगे के उस रोल के बारे में जानकारी लेने लगी जो टीवी ने नहीं दी थी. आकर सट गई मम्मा से और बोली- मैंने इतना दर्द सहा है और बेटी पैदा की है. हम दोनों को प्यार करो...”

    और अगले ही दिन वह आसमान की परी बनी हुई थी एस्ट्रोनॉट के वेष में.

    घूमने वाली कुरसी पर बैठी, तेज- तेज कमरे का चक्कर लगा रही थी. बंद आंखें, हवा में लहराते ऊपर उठते हाथ,बंद होती फिर जमीन की ओर खुल जाती मुट्ठी. तेज और तेज होते चक्कर. घबराती मैं, कि एक दिन ऐसे ही घूमती गिरी थी, सर फटा था और पड़ोसी टांके लगवाने गए थे.खबर पाकर ऑफिस से भागती आई थी मैं! “बिट्टी रूक जाओ.” उस याद से आतंकित मैने कहा. वह नहीं रूकी. “रूको-“ अबकी मैं जोर से बोली. वह फिर भी घूमती रही तो मैंने जाकर झटके से रोक दिया. वह आग हो गई. “क्यों रोका मुझे?” “गिर गई थी न एक दिन, सर फट गया था न..” मैंने गुस्सा दबाते हुए कहा. “पर आज नहीं फटता.” “कैसे?.. आज फिर तुम इतनी तेजी से घूम रही थी.” “नहीं, आज चोट नहीं लगती क्योंकि आज मैं कुरसी घुमा नहीं, तैरा रही थी..” “अच्छा- अच्छा चल दूध पी, पढ़ने बैठ..” “नहीं मम्मा, मैं तैरा रही थी, इसीलिए चोट नहीं लगती.” “कहां तैरा रही थी- आसमान में?”- मैने व्यंग्य किया. “हां,” वह समझ लिए जाने की आश्वस्ति से भरकर मुस्कुराई. “आज ये कुरसी, कुरसी नहीं, यान थी जो अंतरिक्ष तक चली गई थी. देखा नहीं तुमने कि पहले मैंने आसमान से तारे तोड़े, उन्हें एक- एक कर नीचे तुम्हारी गोदी मे गिराया.. जब तुम्हारी गोदी भर गई तो बाकी बचे को तोड़कर यान में रखती गई.. मै ऐस्ट्रोनॉट हूं- मेरे कपड़े देखो. चांद पर खड़े होकर मैंने तारे तोड़े. छूने में वे ठंढे थे. फिर मैंने यान उड़ाया और तुम्हारी ओर चली. सोचा तुम्हें भी करा दूं ऐसी मजेदार सैर.. पर तुमने मुझे बीच में ही रोक दिया.” वह रूंआसी हो रही थी. मैंने उसे सॉरी बोला और दुलार से खुद से सटा लिया. वह दो बरस की थी तब भी एक दिन उसने कहा था कि वह एक दिन आसमान से सारे तारे तोड़- तोड़कर जमीन पर गिरा देगी ताकी धरती ही झिलमिल- झिलमिल हो जाए..

    मुझे रोना आ गया. उसके कोमल मन को अपनी कर्कशता से काटती रही थी मैं. आखिर जरूरी नहीं था कि वह रोज होमवर्क करे ही. जरूरी नहीं था कि स्कूल से शिकायत आए तो मैं नाराज ही होऊं.. उससे जबर्दस्ती पढ़ाई करवाऊं और उसे बंधे- बंधाए नियमों में, चली- चलाई लीक पर ले आने की कोशिश में अंदर से मार दूं... मैं रिस्क ले सकती थी कि उसे उसकी तरह ही रहने दूं.. और फिर इंतजार करूं, पहचानूं कि उसके अंदर कैसी कोंपलें फूटती हैं. वह लेखिका बनती है कि कलाकार.. अच्छी- अच्छी ड्राइंग और मीठी- मीठी कल्पनाएं करने वाली बेटी से, रिश्ते अच्छे बनाए रखने पर ज्यादा जोर दूं.. पर मैं दुनियावी लिहाज से उसे ढालना चाहती रही.

    किसी कसक ने अंदर उमड़कर खुलते दरवाजे को कसकर बंद कर दिया.

    उस बंद हुए दरवाजे ने अंदर के बहुत कुछ को मूंद कर ढक दिया. सिर्फ यादें नहीं, हमारे अलग- अलग वैल्यू सिस्टम, अलग चाहतें, अलग सपनें, दिल की अलग गांठें..अब दरवाजे के इस पार मैं, उस पार वह. बीच में अनसमझी भावनाएं और जेनरेशन गैप. अनकहे से इतने कुछ को कहे जाने से रोकते दरवाजों की कतारें.. मां को बेटी से अलग करते, मां और बेटी के बीच में बाधा बनते दरवाजे.. मैं दरवाजे के उस पार जा सकती थी.अपने और उसके बीच की दूरी को पाट सकती थी.. दरवाजा खटखटाकर मन की कहकर उसके दिल पर दस्तक दे सकती थी. पर एक -एक दरवाजा जैसे एक- एक दीवार था.

    गिफ्ट की तो कोई बात नहीं थी. नहीं दिया, तो नहीं दिया, पर उसके बयान मेरे लिए एक ऐसी सच्चाई थे जिन्हें मैं न नकार सकती थी, न स्वीकार. सच है कि मैं चाहती रही हूं कि वह मेरी बात माने, मन लगाकर पढ़े, कुछ बनकर दिखाए.. मेरा सीना गर्व से चौड़ा कर दे. उसे सीने से लगाकर मां होने की खुशी से मेरी आंखें गीली हो जाएं. पर मेरे प्रति उसकी भावनाएं अगर ऐसी हो गई हैं तो मैं एक हारी हुई, विफल मां हूं. उसे मैं अपना बाहर ही दिखा सकी, दिल के अंदर का कुछ भी दिखा नहीं पाई.. बोली की कठोरता तो सतह पर आ गई, उसके लिए दिल का दर्द सतह पर नहीं आ पाया.

    क्रमश...